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Thursday, July 11, 2024

सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला : तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का हक


सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला : तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का हक 

सुप्रीम कोर्ट की बड़ी टिप्पणी- यह कोई दान नहीं, अधिकार

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को मुस्लिम महिलाओं के हक में एक बड़ा फैसला सुनाया है। अदालत ने कहा कि कोई भी मुस्लिम तलाकशुदा महिला पति से गुजारे भत्ता मांग सकती है। इसके लिए महिलाएं सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर कर सकती हैं। 

पीठ ने जोर देकर कहा कि भरण-पोषण दान नहीं, बल्कि हर शादीशुदा महिला का अधिकार है और सभी शादीशुदा महिलाएं इसकी हकदार हैं, फिर चाहे वे किसी भी धर्म की हों। उसने कहा, 'मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 को सीआरपीसी की धारा-125 के धर्मनिरपेक्ष और धर्म तटस्थ प्रावधान पर तरजीह नहीं दी जाएगी।'

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने फैसला सुनाते हुए कहा कि मुस्लिम महिला भरण-पोषण के लिए कानूनी अधिकार का इस्तेमाल कर सकती हैं। वो इससे संबंधित दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत याचिका दायर कर सकती हैं।

गुजारा भत्ता कोई दान नहीं
पीठ ने आगे कहा कि गुजारा भत्ता कोई दान नहीं है, बल्कि शादीशुदा महिलाओं का अधिकार है। ये धारा सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होती है, फिर चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। मुस्लिम महिलाएं भी इस प्रावधान का सहारा ले सकती हैं। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने फैसला सुनाते हुए कहा, 'हम आपराधिक अपील को इस निष्कर्ष के साथ खारिज कर रहे हैं कि धारा 125 सभी महिलाओं पर लागू होगी, न कि केवल विवाहित महिलाओं पर।'

क्या है मामला?
अब्दुल समद नाम के एक मुस्लिम शख्स ने पत्नी को गुजारा भत्ता देने के तेलंगाना हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट में शख्स ने दलील दी थी कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार नहीं है। महिला को मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 अधिनियम के प्रावधानों के तहत ही चलना होगा। ऐसे में कोर्ट के सामने सवाल था कि इस केस में मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 को प्राथमिकता मिलनी चाहिए या सीआरपीसी की धारा 125 को।

शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ता के वकील वसीम कादरी की दलीलें सुनने के बाद 19 फरवरी को मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। मामले में न्यायालय की सहायता के लिए उसने वकील गौरव अग्रवाल को न्याय मित्र नियुक्त किया था। कादरी ने दलील दी थी कि सीआरपीसी की धारा-125 के मुकाबले 1986 का कानून मुस्लिम महिलाओं के लिए ज्यादा फायदेमंद है।

तेलंगाना उच्च न्यायालय ने 13 दिसंबर 2023 को समद की पत्नी को अंतरिम गुजारे भत्ते के भुगतान के संबंध में परिवार अदालत के फैसले पर रोक नहीं लगाई थी। हालांकि, उसने गुजारा भत्ता की राशि प्रति माह 20 हजार रुपये से घटाकर 10 हजार कर दी थी, जिसका भुगतान याचिका दाखिल करने की तिथि से किया जाना था।

समद ने उच्च न्यायालय में दलील दी थी कि दंपति ने 2017 में पर्सनल लॉ के अनुसार तलाक ले लिया था और उसके पास तलाक प्रमाणपत्र भी है, लेकिन परिवार अदालत ने इस पर विचार नहीं किया और उसे पत्नी को अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश जारी कर दिया। उच्च न्यायालय से कोई राहत न मिलने पर समद ने उच्चतम न्यायालय का रुख किया था।

क्या है सीआरपीसी की धारा 125?
सीआरपीसी की धारा 125 में पत्नी, संतान और माता-पिता के भरण-पोषण को लेकर विस्तार से जानकारी दी गई है। इस धारा के अनुसार पति, पिता या बच्चों पर आश्रित पत्नी, मां-बाप या बच्चे गुजारे-भत्ते का दावा केवल तभी कर सकते हैं, जब उनके पास आजीविका का कोई और साधन उपलब्ध नहीं हो।



सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश व्यापक प्रभाव वाला है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं भी पति से भरण-पोषण यानी गुजारा भत्ता पाने की अधिकारी हैं। यह इसलिए एक बड़ा और बेहद महत्वपूर्ण निर्णय है, क्योंकि इसके माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी सरकार की ओर से उठाए गए एक गलत कदम का प्रतिकार करने के साथ ही मुस्लिम महिलाओं को न्याय देने का काम किया है।


एक तरह से इस निर्णय के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने यही रेखांकित किया कि बहुचर्चित शाहबानो मामले में उसकी ओर से दिया गया फैसला सर्वथा उचित एवं संविधानसम्मत था और राजीव गांधी सरकार ने उसे पलट कर सही नहीं किया था।

ज्ञात हो कि शाहबानो पर सुप्रीम कोर्ट का 1985 का फैसला भी गुजारा भत्ता से संबंधित था, लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के चलते राजीव गांधी सरकार ने इस फैसले को पलट दिया था और 1986 में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के दबाव में आकर उनके मन मुताबिक और शरिया के अनुकूल मुस्लिम महिला अधिनियम बनाया था। इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन करना था।


अब सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह अधिनियम किसी पंथनिरपेक्ष कानून पर हावी नहीं होगा और तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं गुजारा भत्ता के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत याचिका दायर कर सकती हैं।


तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल यही नहीं कह रहा कि अलग-अलग समुदाय की महिलाओं को भिन्न-भिन्न कानूनों से संचालित नहीं किया जा सकता, बल्कि समान नागरिक संहिता की आवश्यकता भी जता रहा है। इसी के साथ यह भी संदेश दे रहा है कि देश के लोग संविधान से चलेंगे, न कि अपने पर्सनल कानूनों से, वे चाहे जिस पंथ-मजहब के हों।


यह अपेक्षा अनुचित नहीं कि विपक्षी दलों के वे नेता सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की प्रशंसा करने के लिए आगे आएं, जो पिछले कुछ समय से संसद के भीतर-बाहर संविधान की प्रतियां लहराकर यह दावा करने में लगे हुए हैं कि उन्होंने उसकी रक्षा की है और वे उसे बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यदि संविधान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता सच्ची है तो उन्हें इस फैसले का स्वागत करना ही चाहिए। इसकी भरी-पूरी आशंका है कि इस फैसले से कुछ मुस्लिम संगठन असहमति जताने के साथ उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दें।


पता नहीं वे क्या करेंगे, लेकिन राहत की बात यह है कि इस समय केंद्र में मोदी सरकार है, न कि तथाकथित सेक्युलरिज्म की दुहाई देने वाली कोई सरकार। यह सही समय है कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने के अपने वादे को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़े। इसका कोई औचित्य नहीं कि देश में अलग-अलग समुदायों के लिए तलाक, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि के नियम-कानून इस आधार पर हों कि उनका उनका पंथ-मजहब क्या है?

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