अपने दायित्वों के प्रति सजग नहीं राज्य सरकार के अधिकारी, विलंब के बाद दाखिल की जा रही अपीलों पर उच्च न्यायालय की नाराजगी
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश में राज्य सरकार की ओर से काफी विलंब के बाद दाखिल की जा रही अपीलों पर नाराजगी जताई है। कहा कि काफी देरी से दाखिल अपीलों से ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य सरकार के पैरोकार अपने दायित्वों के प्रति सजग नहीं है। कोर्ट ने कहा कि ऐसी अपीलों के खारिज होने पर राजकोष को क्षति तो पहुंचती ही है, न्यायालय का कीमती समय भी नष्ट होता है।
मुख्य न्यायमूर्ति राजेश बिंदल एवं न्यायमूर्ति जेजे मुनीर की खंडपीठ ने यह आदेश राज्य सरकार की एक विशेष अपील को खारिज करते हुए दिया है। राज्य सरकार ने यह अपील एकल पीठ के जुलाई 2019 के आदेश के विरुद्ध 948 दिनों की देरी के साथ दाखिल की थी। याची के वकील ने विलंब के आधार पर अपील खारिज करने की मांग की थी।
वहीं राज्य सरकार ने जवाबी हलफनामे में अधिकारियों के बीच तालमेल की कमी एवं कोरोना लॉकडाउन को देरी का कारण बताया। याची के अधिवक्ता ने कहा कि पहला लॉकडाउन मार्च 2020 में लगा था। जबकि अपील दाखिल करने की मियाद उससे पहले ही समाप्त हो चुकी थी। उन्होंने कहा कि विलंब को अधिकारियों की सहूलियत के हिसाब से माफ नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने राज्य सरकार की ओर से दाखिल पत्रावलियों के आधार पर कहा कि एकल पीठ के फैसले के पांच महीने बाद अधिकारियों ने आदेश के अनुपालन या चुनौती संबंधी निर्णय लिया। उसके बाद शासन स्तर के अधिकारियों ने मार्च 2022 तक अपील दाखिल करने की अनुमति को भी लंबित रखा। शासन की अनुमति मिलने के बाद स्थायी अधिवक्ता ने भी अपील दाखिल करने में एक महीने का समय लगाया।
कोर्ट ने कहा कि इससे पहले भी सरकार की ओर से दाखिल कालबाधित अपीलों में विलंब माफी का प्रकरण निरंतर आता रहा है। कोर्ट भी अधिकारियों के प्रमादी रवैये को नजरअंदाज करती रही है लेकिन अधिकारी समय रहते अपील दाखिल करने में नियमित रूप से अकर्मण्यता एवं शिथिलता दिखा रहे हैं। ऐसे में कोर्ट भी अब अपने उदारवादी दृष्टिकोण की समीक्षा आवश्यक समझती है।
कोर्ट ने 2012 में पोस्टमास्टर जनरल केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि तकनीकी के इस जमाने में भी अधिकारियों की ओर से भारी विलंब के साथ अपील दाखिल की जा रही है। साथ ही अपील खारिज करते हुए सिंचाई विभाग के प्रमुख सचिव को अपील में देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ जांच के आदेश दिए।
कोर्ट ने कहा कि अपील से स्पष्ट है कि राज्य सरकार एकल पीठ के फैसले को विधि विपरीत मानती है। ऐसी स्थिति में अपील खारिज होने के बाद कर्मचारी की जन्म तिथि में परिवर्तन करना होगा, जिससे सरकारी खजाने पर अतिरिक्त भार पड़ना निश्चित है। ऐसी स्थिति में वेतन भुगतान के लिए राजकोष पर भार डालने के स्थान पर अपील में विलंब के लिए जिम्मेदार अधिकारियों से वसूली की जाए।
यह है मामला
फिरोजाबाद में सिंचाई विभाग में सीताराम को 1977 में बेलदार नियुक्त किया गया था। कर्मचारी की हाईस्कूल मार्कशीट में जन्म का वर्ष 1957 दर्ज है लेकिन अधिकारियों ने देवनागरी लिपि में लिखे 1957 के अंक 7 को भूलवश 6 मानते हुए सेवा पंजिका में जन्म के वर्ष को 1956 लिख दिया था। इस कारण उसे एक वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त कर दिया गया।
कर्मचारी ने हाईकोर्ट में याचिका की थी। कोर्ट ने साक्ष्यों के आधार पर याची के जन्म का वर्ष 1957 माना था। साथ ही विभाग को एक वर्ष के वेतन का भुगतान करने का निर्देश दिया था। राज्य सरकार ने अपील में इसी आदेश को चुनौती दी है।