एससी - एसटी में वर्गीकरण संभव
आरक्षण पर कुछ वर्गों की पहुंच न होने पर सुप्रीम कोर्ट ने उठाया सवाल : क्या कुछ लोग हमेशा ही अपने पिछड़ेपन को ढोते रहेंगे?
नई दिल्ली : विभिन्न राज्यों में आरक्षण में आरक्षण को लेकर खींचतान चलती रहती है। उत्तर प्रदेश में 2001 में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह आरक्षण कोटे में कोटे की व्यवस्था की थी, परंतु यह मामला कोर्ट में चले जाने के कारण अटक गया था। सामाजिक न्याय समिति ने स्वीकारा था कि पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति वर्ग को मिल रहे आरक्षण का लाभ कुछ जाति विशेष को ही मिल रहा है। जिस कारण आरक्षित वर्ग में एक बड़ा समुदाय अभी बहुत पिछड़ा है। 27 सितंबर 2001 को कोटे में कोटा व्यवस्था लागू की गयी थी। 2002 में भाजपा सत्ता से बाहर होने के बाद बसपा व सपा सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उप्र अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष बृजलाल ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि आरक्षण लाभ वंचित वर्ग को दिलाने के लिए वर्गीकरण बहुत आवश्यक है। पंजाब में अनुसूचित जातियों को नौकरियों में 25 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है। पंजाब में अनुसूचित जनजाति नहीं है। अनुसूचित जाति के आरक्षण में राज्य सरकार की ओर से वाल्मीकि और मजहबी सिखों को आधा, यानी 12.5 फीसद और शेष 37 अनुसूचित जातियों को 12.5 फीसद आरक्षण दिया जा रहा है। पंजाब के एडवोकेट जनरल अतुल नंदा ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब सरकार बनाम देवेंद्र सिंह मामले में अनुसूचित जातियों को मिलने वाले आरक्षण में आरक्षण देने के पंजाब सरकार के फैसले को स्वीकार कर लिया है।
यह होगा असर : देखने में आया है कि एक बार आरक्षण का लाभ ले चुकी जातियां ही बार-बार उसका लाभ पाती रहती हैं। वहीं बहुत से निचले तबके कभी आरक्षण का लाभ नहीं ले पाते हैं। एससी/एसटी जातियों में उपवर्गीकरण की राह खुलने से उस निचले तबके को भी मुख्यधारा में आने का मौका मिलेगा।
जाब्यू, नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जब आरक्षण एक वर्ग के बीच असमानता पैदा करे तो राज्य का दायित्व है कि वह उपवर्गीकरण के जरिये उसे दूर करे और इस तरह उसका बंटवारा करे कि लाभ सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित न रहे बल्कि सभी के साथ न्याय हो। मान्य सीमा तक आरक्षण देने का अधिकार राज्य विधायिका के पास है। विभिन्न रिपोर्ट दर्शाती हैं कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वर्ग में सब जातियां समान नहीं हैं।
एससी/एसटी में भी क्रीमीलेयर
कोर्ट ने आरक्षण के हमेशा लागू रहने के औचित्य, एससी/एसटी वर्ग में भी क्रीमीलेयर लागू करने जैसे कई मुद्दों को छूते हुए कहा कि आरक्षण का लाभ सबसे जरूरतमंद तक नहीं पहुंच रहा है। इसके लिए राज्य आरक्षण देते समय अनुच्छेद 14, 15 और 16 की अवधारणा के आधार पर सूची में दी गई अनुसूचित जातियों में तर्कसंगत उपवर्गीकरण भी कर सकता है। राज्य सरकार सूची में छेड़छाड़ नहीं कर सकती और न ही वह सूची में किसी जाति को जोड़ अथवा घटा सकती है और न ही जाति की जांच कर सकती है।
बड़ी बात
ध्यान रहे कि फिलहाल केंद्र सरकार ने ओबीसी में वर्गीकरण के लिए आयोग का गठन किया है। अगर बड़ी पीठ से भी उपवर्ग बनाने के हक में फैसला आया तो आरक्षण का स्वरूप बहुत कुछ बदलेगा।
उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को कहा पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने देने के लिए अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के भीतर जातियों रद्द कर दिया था। इसमें नौकरियों में को वर्गीकृत करने के लिए कानून सिखों को प्राथमिकता का प्रावधान था। बना सकते हैं।
कोर्ट ने कहा अनुच्छेद 342 ए अब 2018 से संविधान में है, यह आरक्षित जातियों में किसी एक उप समूह को तरजीह देने की अनुमति देता है।कोर्ट ने कहा जब राज्य सरकारों को आरक्षण देने का अधिकार है तो उन्हें यह भी तय करने का अधिकार है कि किस जाति की उपजाति को कितना आरक्षण दिया जाए। कोर्ट ने कहा कि उपवर्गीकरण जातियों की आरक्षण सूची से छेड़छाड़ करने जैसा नहीं होगा, जिसकी संविधान में मनाही है।
2004 के फैसले पर विचार की जरूरत : शीर्ष न्यायालय ने कहा कि उसके 2004 के फैसले परफिर विचार करने की जरूरत है। इसमें कहा गया था कि शैक्षणिक संस्थानों में नौकरियों और प्रवेश में आरक्षण देने के लिए राज्यों के पास अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का उपवर्गीकरण करने की शक्ति नहीं है। जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि ईवी चिन्नैया मामले में संविधान पीठ के (2004) फैसले पर फिर से विचार की जरूरत है। इसे उचित निर्देश के लिए मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा जाना चाहिए।