लखनऊ : इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि आपराधिक मामले में दोष सिद्ध होना ही किसी व्यक्ति को नौकरी से बर्खास्त किए जाने का आधार नहीं हो सकता।
बीते चार दिसंबर को सुनाए गए फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुशासनिक प्राधिकारी को कोर्ट से दोष सिद्ध करार दिए गए कर्मचारी पर कार्रवाई के लिए लिखित आदेश पारित करना होगा। न्यायमूर्ति राजन रॉय की एकल सदस्यीय पीठ ने निर्णय में आगे कहा है कि यह भी आवश्यक है कि अनुशासनिक प्राधिकारी दोष सिद्ध ठहराए गए उस कर्मचारी के उस आचरण पर विचार करेगा जिसकी वजह से वह दोष सिद्ध करार दिया गया है।
राष्ट्रीय बचत निदेशालय में राज्य सरकार के अधीन सांख्यिकीय सहायक के पद पर तैनात रहे दयाराम की याचिका पर न्यायालय ने यह फैसला सुनाया। याचिका में कहा गया था कि याची 24 अप्रैल 2009 को निचली अदालत से गैर इरादतन हत्या और अनलॉफुल असेंबली के आरोप में दोष सिद्ध किया जा चुका है। उसने इस आदेश के विरुद्ध अपील की है जो विचाराधीन है और उसे जमानत पर रिहा किया जा चुका है।
अदालत द्वारा उसे दोष सिद्ध ठहराने के बाद 18 मई 2009 को बचत निदेशालय के अपर निदेशक ने एक आदेश जारी करते हुए याची को बर्खास्त कर दिया। न्यायालय ने कहा कि ऐसा प्रकट होता है कि याची को मात्र दोष सिद्ध होने पर ही यह आदेश जारी कर दिया गया जबकि स्पष्ट नियम है कि मात्र दोष सिद्धि किसी व्यक्ति को नौकरी से बर्खास्त किए जाने का आधार नहीं हो सकती। न्यायालय ने इस संबंध में शीर्ष अदालत के एक आदेश का हवाला देते हुए कहा कि फैसले में दिए गए आधार पर अनुशासनिक प्राधिकारी मामले पर निर्णय लें। इसके साथ ही याची को उसका कार्यभार सौंप दिया जाए। हालांकि न्यायालय ने बर्खास्तगी के दौरान के वेतन-भत्ताें केप्रश्न पर कहा कि यह अनुशासनिक प्राधिकारी के नए निर्णय पर निर्भर करेगा और निर्णय देने से पूर्व याची को इसका भुगतान नहीं किया जाएगा।