📌 1998-99 में केंद्र सरकार अपनी आय का 38 फीसदी कर्मचारियों पर खर्च करती थी, जो 2015-16 में 18 प्रतिशत रह गया।
मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस के इस दौर में सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट पढ़ने पर कई भ्रांतियां तार-तार हो जाती हैं। पहली और सबसे बड़ी भ्रांति यह है कि सरकारी महकमों में फालतू कर्मचारियों की लंबी-चौड़ी फौज है। दूसरी यह कि इन कर्मचारियों को मोटी तनख्वाह मिलती है, जिसका बोझ आम करदाता पर पड़ता है। तीसरी यह कि ठेके पर कर्मचारी रखने का चलन केवल निजी क्षेत्र तक सीमित है, सरकार सबको पक्की नौकरी देती है। सबसे पहले सरकारी कर्मचारियों की संख्या से जुड़ा सच जाना जाए। पिछले दो दशक में हुई जनसंख्या वृद्धि और अर्थव्यवस्था के विस्तार से बढ़े काम के बोझ का जायजा लेने पर पता चलता है कि इस दौरान कर्मचारियों की संख्या बढ़ी नहीं, घटी है। सही मायने में यह पिछले 17 सालों में घटते-घटते आधी रह गई है।
खुली अर्थव्यवस्था की पैरोकार बिरादरी सरकारी मुलाजिमों को बाजार के निरंकुश विस्तार में अड़ंगा मानती है, इसीलिए उनकी संख्या घटाने और अधिकार कम करने की पुरजोर वकालत की जाती है। डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) ने मई 2001 को भारत सरकार के सभी 56 मंत्रालयों के लिए एक आदेश जारी किया, जिसके अनुसार उन्हें अपने कर्मचारियों की संख्या दो फीसदी प्रति वर्ष की दर से घटाने का हुक्म दिया गया। इस आदेश का नतीजा है कि वर्ष 2014 में सरकारी मुलाजिमों की तादाद 39.9 लाख रह गई, जबकि बीस बरस (1994) पहले यह 41.76 लाख थी।
आज भारत सरकार के विभिन्न विभागों में 19 प्रतिशत मंजूरशुदा पद खाली पड़े हैं। कई मंत्रालय तो ऐसे हैं जो आधे स्टाफ के भरोसे चल रहे हैं। उदाहरण के लिए विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय में 12,503 कर्मचारी होने चाहिए, जबकि हैं केवल 6,680 (47 फीसदी कम)। इसी प्रकार वित्त मंत्रालय में 1,76,260 पद की एवज में 95,863 (46 फीसदी कम), ऊर्जा मंत्रालय में 1,895 पद की एवज में 1,044 (45 फीसदी कम), नागरिक उड्डयन मंत्रालय में 1,757 पद की एवज में 977 (44 फीसदी कम) तथा कॉरपोरेट मंत्रालय में 2,361 पद की एवज में 1,411 (40 फीसदी कम) कर्मचारी कार्यरत हैं।
सरकारी कर्मचारियों में बड़ी संख्या इंजीनियरों, डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और वित्त विशेषज्ञों की है, जिनके पद खाली रहने का दुष्प्रभाव सीधे आम जनता और देश की प्रगति पर पड़ता है। हर साल करीब तीन प्रतिशत सरकारी कर्मचारी रिटायर हो जाते हैं, जिनके स्थान पर औसतन एक फीसदी स्टाफ की भर्ती होती है। कर्मचारियों की कमी के कारण न्यायपालिका और नियामक संस्थान भी कमजोर पड़ गए हैं। इस कमजोरी का लाभ अक्सर प्रभावशाली तबका उठाता है।
पिछले दो दशकों से भारत के नीति निर्धारकों का आदर्श पश्चिमी समाज बना हुआ है। हमारे नेता-अफसर बात-बात में अमेरिका और यूरोप का उदाहरण देते हैं। बताया जाता है कि वहां सरकार का दायित्व कुछ विषयों तक सीमित है। इसीलिए ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ का जुमला जोर-शोर से उछाला जाता है। लेकिन सचाई कुछ और है। वेतन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में जहां प्रति एक लाख आबादी पर 668 सरकारी कर्मचारी हैं, वहीं भारत में यह संख्या महज 139 है। इस हिसाब से नरेंद्र मोदी के मुकाबले बराक ओबामा सरकार के मुलाजिमों की फौज करीब पांच गुनी कही जाएगी। दोनों देशों की सेना और पुलिस बल को निकाल दें, तब भी ‘अंकल सैम’ का पलड़ा भारी बैठता है। अमेरिका में सिविल कर्मचारियों की संख्या 21.3 लाख है, जबकि भारत में यह आंकड़ा 17.96 लाख है। इसका अर्थ यह है कि हमारे देश के सरकारी कर्मचारी पर काम का बोझ कहीं ज्यादा है। अब जरा वेतन से जुड़े सत्य को टटोला जाए। इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि निचले और मध्य स्तर के सरकारी कर्मचारियों का वेतन, सुविधा और जॉब सिक्योरिटी निजी क्षेत्र से बेहतर हैं। सरकारी महकमे में चपरासी की पोस्ट के लिए भी लाखों आवेदन इसीलिए आते हैं। लेकिन प्राइवेट सेक्टर के टॉप एग्जिक्यूटिव की तनख्वाह भारत सरकार के आला अधिकारी से कई गुना अधिक होती है। आज प्राइवेट सेक्टर में न्यूनतम और अधिकतम वेतन के बीच एक चौड़ी खाई है। इस बार सरकारी कर्मचारियों के न्यूनतम मूल वेतन में 2.57 गुना वृद्धि की गई है, जो आजादी के बाद दूसरी सबसे कम बढ़ोतरी है। आंकड़े गवाह हैं कि सरकारी खर्च में कर्मचारियों का वेतन भार निरंतर कम हुआ है। वर्ष 1998-99 में केंद्र सरकार अपनी आय का 38 फीसदी पैसा कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और पेंशन पर खर्च करती थी, जो 2015-16 में आधे से भी नीचे आकर 18 प्रतिशत रह गया। जिस फार्मूले के आधार पर उनका वेतन तय होता है, वह 1957 के श्रम सम्मेलन में तय किया गया था और करीब छह दशक बाद भी उसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है।
इस दौर में कर्मचारियों को ठेके पर रखने का चलन निरंतर जोर पकड़ता जा रहा है। आम धारणा है कि कर्मचारियों को समुचित वेतन और सुविधा देने से बचने के लिए ही निजी कंपनियां ठेका प्रथा को बढ़ावा देती हैं, जबकि सच यह है कि आज ठेके पर सर्वाधिक कर्मचारी भारत सरकार में हैं। ऐसे कच्चे मुलाजिमों पर केंद्र हर साल तीन अरब रुपये से अधिक खर्च कर रहा है, जो ठेका बाजार का करीब 15 फीसदी है। यह व्यय साल दर साल बढ़ता जा रहा है। इस बार वेतन आयोग के समक्ष कई मंत्रालयों ने ठेके पर कर्मचारी रखने का विरोध किया, मगर उनकी बात नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दबकर रह गई।