सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि आरक्षण से प्रोन्नति में परिणामी वरिष्ठता स्वत: नहीं मिल जाती क्योंकि आरक्षण पाना मौलिक अधिकार नहीं है। आरक्षण एक सकारात्मक प्रावधान है। वरिष्ठता सिद्धांत तर्कसंगत और निष्पक्ष होने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर आरक्षण की सरकारी नीति और कानून में इसका प्रावधान नहीं है तो आरक्षण से प्रोन्नति पाने वाले को परिणामी वरिष्ठता नहीं मिलेगी।
न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर एवं न्यायमूर्ति आर भानुमति की खंडपीठ ने एस. पन्नीरसेल्वम एवं अन्य बनाम तमिलनाडु (सिविल अपील संख्या 6631-6632/2015) तथा अन्य याचिकाओं को स्वीकार करते हुए एससी/एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी वरिष्ठता केमामले में मद्रास हाईकोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया। खंडपीठ ने कहा कि नियमों में परिणामी वरिष्ठता का कोई प्रावधान न होने के कारण ‘कैच अप रूल्स’ लागू होगा। खंडपीठ ने तमिलनाडु सरकार को चार महीने के भीतर कैचअप रूल लागू करते हुए असिस्टेंट डिवीजनल इंजीनियर्स की दोबारा वरिष्ठता सूची बनाने का आदेश दिया है। खंडपीठ ने कहा है कि अगर किसी जूनियर इंजीनियर को आरक्षण का लाभ देते हुए असिस्टेंट डिवीजनल इंजीनियर पद पर प्रोन्नति के साथ परिणामी वरिष्ठता दी गई है तो उसे पदावनत किया जाए। गौरतलब है कि कैचअप रूल का मतलब है, आरक्षित वर्ग का कर्मचारी आरक्षण के जरिए प्रोन्नत होकर अपने वरिष्ठ से ऊंचे पद पर पहुंच जाता है तो जब कभी भी वरिष्ठ प्रोन्नति पाकर उसके बराबर आएगा तो फिर वह फिर से अपनी वरिष्ठता प्राप्त कर लेगा। आरक्षण से प्रोन्नति पाने वाले कर्मचारी को प्रोन्नति की तिथि के आधार पर वरिष्ठता नहीं मिलेगी। भविष्य में संशोधित वरिष्ठता सूची के आधार पर ही प्रोन्नति दी जाएगी। इस मामले में सामान्य वर्ग के कर्मचारियों ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। इनका कहना था कि जबतक कानून में प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता का प्रावधान न हो, तबतक स्वत: परिणामी वरिष्ठता नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कर्मचारी के करियर में वरिष्ठता बहुत महत्वपूर्ण होती है और उसकी भविष्य की प्रोन्नति उस पर निर्भर होती है। इसलिए वरिष्ठता का निर्धारण तर्क संगत और निष्पक्ष सिद्धांतों के आधार पर होना चाहिए। यही नहीं तमिलनाडु सरकार ने तमिलनाडु हाईवे इंजीनियरिंग सर्विस के लिए प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता का नीतिगत फैसला या नियम नहीं बनाया है, इसलिए प्रोन्नति से आरक्षण पाने वाले कर्मचारियों को स्वत: परिणामी वरिष्ठता नहीं मिलेगी। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में आरक्षण के मुद्दे पर अब तक आए फैसलों का जिक्र किया है, जिसमें उत्तर प्रदेश के प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी वरिष्ठता निरस्त करने के निर्णय का भी हवाला दिया गया है।
गौरतलब है कि प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को लेकर संविधान में इसे लेकर दो बार संशोधन हो चुके हैं तथा संविधान पीठ के इस पर चार महत्वपूर्ण निर्णय आ चुके हैं। सबसे पहले 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने प्रोन्नति में आरक्षण को असंवैधानिक माना। इसे निष्प्रभावी करने के लिए संविधान में 77 वां संशोधन करके अनुच्छेद 16 में खंड 4क जोड़ा गया और प्रोन्नति में आरक्षण का रास्ता साफ किया गया। मगर इससे नया असंतुलन पैदा हुआ। इसका लाभ उठाकर अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारी धड़ाधड़ ऊंचे पदों पर पहुंचते गए, जबकि दूसरे लोगों के मन में क्षोभ पनपने लगा। उसे चुनौती दी गई। 1995 में वीरपाल सिंह बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसका तार्किक हल निकालते हुए निर्णय दिया कि प्रोन्नति में आरक्षण का लाभ केवल एक बार मिलेगा। मगर, अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों के दबाव में इस निर्णय को निष्प्रभावी करना पड़ा और 85 वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16(4 क) में संशोधन करके यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया कि प्रोन्नति में आरक्षण पाने वालों को इसकी परिणामी वरिष्ठता का लाभ आगे भी मिलता रहे। इसे पुन: सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सन् 2000 में एम. नागराज बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान सम्मत मानते हुए कहा कि अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों को परिणामी वरिष्ठता का लाभ देकर एक से अधिक बार प्रोन्नति में आरक्षण किया जा सकता है, किंतु शर्त यह है कि सरकार को साबित करना होगा कि प्रोन्नति वाले पद पर उनकी नुमाइंदगी पर्याप्त नहीं हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने एम. नागराज के निर्णय की अनदेखी करते हुए अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों की निर्बाध प्रोन्नति का नियम बना दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल 2012 के निर्णय में असंवैधानिक घोषित कर दिया। गौरतलब है कि सबसे पहले इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यों वाली पीठ ने माना कि नौकरी में आने के बाद सभी कर्मचारी समान हो जाते हैं। इसलिए पदोन्नति में आरक्षण असंवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को पांच साल का समय दिया था कि वह इस व्यवस्था को इस अवधि में समाप्त कर दे, लेकिन जून 1995 में 77 वां संविधान संशोधन करते हुए धारा 16(4) में एक उपधारा 16(4ए) जोड़ते हुए फिर आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया। इसके बाद आरके सब्बरवाल बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नियत कोटे से अधिक के आरक्षण दिए जाने को गलत करार दिया। फिर 81वें संविधान संशोधन के माध्यम से कहा गया कि बैकलाग में एससी-एसटी के लिए पचास फीसदी की सीमा लागू नहीं होगी। पदोन्नति के मानदंडों में छूट दिए जाने के सवाल पर एस विनोद कुमार बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि प्रोन्नतियों के मानदंडों में छूट दिया जाना असंवैधानिक है। इस पर 82वां संविधान संशोधन करते हुए एससी-एसटी की पदोन्नतियों के मानकों में छूट दी गई। चार मुकदमों की एक साथ सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में फैसला दिया कि प्रमोशन में आरक्षण पाने वालों को वरिष्ठता का लाभ नहीं मिलेगा। पुन: 2002 में 85वां संविधान संशोधन हुआ, जिसमें कहा गया कि जल्दी प्रमोशन पाने वाले एससी-एसटी वर्ग को वरिष्ठता भी दी जाएगी। इसे परिणामी वरिष्ठता कहते हैं। इसके चलते एससी-एसटी कामिंर्कों को अनारक्षित पदों पर भी प्रमोशन किया जाएगा। एम. नागराज बनाम भारत संघ मामले में सभी संशोधनों को चुनौती दी गई। पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि बाध्यकारी कारण बताने पड़ेंगे। इसमें तीन बिंदुओं को संख्यात्मक आंकड़ों से प्रमाणित करना था-पहला, जिसकी पदोन्नति कर रहे हैं, वह अब भी पिछड़ा हुआ है। दूसरा, उसकी पदोन्नति इसलिए कर रहे हैं कि उसके वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है। तीसरा, ऐसा करने से प्रशासनिक दक्षता पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।
अब 117वें संविधान संशोधन से पांचवीं बार यह व्यवस्था की गई है कि एससी-एसटी कर्मचारी पिछड़े माने ही जाएंगे, भले उनकी आमदनी अधिक हो। जो कोटा नौकरियों में होगा, वहीं पदोन्नतियों में भी होगा और परिणामी ज्येष्ठता भी लागू रहेगी। इसके अलावा आर्टकिल 335 में लिखित दक्षता वाली लाइन भी मिटा दी गई है। अब तक चार अदालती फैसले और पांच संविधान संशोधन हो चुके हैं। दरअसल, वोट की राजनीति के कारण प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी लाभ लगातार आरक्षण का लाभ उठाकर अपने सहकर्मियों से आगे टॉप पर पहुंचने के अधिकार का आग्रह है। इसका अर्थ यह है कि यदि अनुसूचित जाति या जनजाति का कर्मचारी इसका लाभ पाकर नए कैडर में चला जाता है, तो वह आगे भी इसी प्रकार लगातार आरक्षण के आधार पर प्रोन्नति पाते हुए टॉप तक पहुंच जाएगा, जबकि उसके साथ नियुक्त सामान्य वर्ग का सहकर्मी अपने मूल पद पर ही बना रह सकता है। दरअसल, प्रोन्नति में आरक्षण शाश्वत आरक्षण और सेवापर्यंत परिणामी लाभ का मामला है, जो संविधान की मूल भावना के विपरीत है। - जेपी सिंह
न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर एवं न्यायमूर्ति आर भानुमति की खंडपीठ ने एस. पन्नीरसेल्वम एवं अन्य बनाम तमिलनाडु (सिविल अपील संख्या 6631-6632/2015) तथा अन्य याचिकाओं को स्वीकार करते हुए एससी/एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी वरिष्ठता केमामले में मद्रास हाईकोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया। खंडपीठ ने कहा कि नियमों में परिणामी वरिष्ठता का कोई प्रावधान न होने के कारण ‘कैच अप रूल्स’ लागू होगा। खंडपीठ ने तमिलनाडु सरकार को चार महीने के भीतर कैचअप रूल लागू करते हुए असिस्टेंट डिवीजनल इंजीनियर्स की दोबारा वरिष्ठता सूची बनाने का आदेश दिया है। खंडपीठ ने कहा है कि अगर किसी जूनियर इंजीनियर को आरक्षण का लाभ देते हुए असिस्टेंट डिवीजनल इंजीनियर पद पर प्रोन्नति के साथ परिणामी वरिष्ठता दी गई है तो उसे पदावनत किया जाए। गौरतलब है कि कैचअप रूल का मतलब है, आरक्षित वर्ग का कर्मचारी आरक्षण के जरिए प्रोन्नत होकर अपने वरिष्ठ से ऊंचे पद पर पहुंच जाता है तो जब कभी भी वरिष्ठ प्रोन्नति पाकर उसके बराबर आएगा तो फिर वह फिर से अपनी वरिष्ठता प्राप्त कर लेगा। आरक्षण से प्रोन्नति पाने वाले कर्मचारी को प्रोन्नति की तिथि के आधार पर वरिष्ठता नहीं मिलेगी। भविष्य में संशोधित वरिष्ठता सूची के आधार पर ही प्रोन्नति दी जाएगी। इस मामले में सामान्य वर्ग के कर्मचारियों ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। इनका कहना था कि जबतक कानून में प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता का प्रावधान न हो, तबतक स्वत: परिणामी वरिष्ठता नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कर्मचारी के करियर में वरिष्ठता बहुत महत्वपूर्ण होती है और उसकी भविष्य की प्रोन्नति उस पर निर्भर होती है। इसलिए वरिष्ठता का निर्धारण तर्क संगत और निष्पक्ष सिद्धांतों के आधार पर होना चाहिए। यही नहीं तमिलनाडु सरकार ने तमिलनाडु हाईवे इंजीनियरिंग सर्विस के लिए प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता का नीतिगत फैसला या नियम नहीं बनाया है, इसलिए प्रोन्नति से आरक्षण पाने वाले कर्मचारियों को स्वत: परिणामी वरिष्ठता नहीं मिलेगी। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में आरक्षण के मुद्दे पर अब तक आए फैसलों का जिक्र किया है, जिसमें उत्तर प्रदेश के प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी वरिष्ठता निरस्त करने के निर्णय का भी हवाला दिया गया है।
गौरतलब है कि प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को लेकर संविधान में इसे लेकर दो बार संशोधन हो चुके हैं तथा संविधान पीठ के इस पर चार महत्वपूर्ण निर्णय आ चुके हैं। सबसे पहले 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने प्रोन्नति में आरक्षण को असंवैधानिक माना। इसे निष्प्रभावी करने के लिए संविधान में 77 वां संशोधन करके अनुच्छेद 16 में खंड 4क जोड़ा गया और प्रोन्नति में आरक्षण का रास्ता साफ किया गया। मगर इससे नया असंतुलन पैदा हुआ। इसका लाभ उठाकर अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारी धड़ाधड़ ऊंचे पदों पर पहुंचते गए, जबकि दूसरे लोगों के मन में क्षोभ पनपने लगा। उसे चुनौती दी गई। 1995 में वीरपाल सिंह बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसका तार्किक हल निकालते हुए निर्णय दिया कि प्रोन्नति में आरक्षण का लाभ केवल एक बार मिलेगा। मगर, अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों के दबाव में इस निर्णय को निष्प्रभावी करना पड़ा और 85 वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16(4 क) में संशोधन करके यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया कि प्रोन्नति में आरक्षण पाने वालों को इसकी परिणामी वरिष्ठता का लाभ आगे भी मिलता रहे। इसे पुन: सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सन् 2000 में एम. नागराज बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान सम्मत मानते हुए कहा कि अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों को परिणामी वरिष्ठता का लाभ देकर एक से अधिक बार प्रोन्नति में आरक्षण किया जा सकता है, किंतु शर्त यह है कि सरकार को साबित करना होगा कि प्रोन्नति वाले पद पर उनकी नुमाइंदगी पर्याप्त नहीं हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने एम. नागराज के निर्णय की अनदेखी करते हुए अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों की निर्बाध प्रोन्नति का नियम बना दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 27 अप्रैल 2012 के निर्णय में असंवैधानिक घोषित कर दिया। गौरतलब है कि सबसे पहले इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यों वाली पीठ ने माना कि नौकरी में आने के बाद सभी कर्मचारी समान हो जाते हैं। इसलिए पदोन्नति में आरक्षण असंवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को पांच साल का समय दिया था कि वह इस व्यवस्था को इस अवधि में समाप्त कर दे, लेकिन जून 1995 में 77 वां संविधान संशोधन करते हुए धारा 16(4) में एक उपधारा 16(4ए) जोड़ते हुए फिर आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया। इसके बाद आरके सब्बरवाल बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नियत कोटे से अधिक के आरक्षण दिए जाने को गलत करार दिया। फिर 81वें संविधान संशोधन के माध्यम से कहा गया कि बैकलाग में एससी-एसटी के लिए पचास फीसदी की सीमा लागू नहीं होगी। पदोन्नति के मानदंडों में छूट दिए जाने के सवाल पर एस विनोद कुमार बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि प्रोन्नतियों के मानदंडों में छूट दिया जाना असंवैधानिक है। इस पर 82वां संविधान संशोधन करते हुए एससी-एसटी की पदोन्नतियों के मानकों में छूट दी गई। चार मुकदमों की एक साथ सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में फैसला दिया कि प्रमोशन में आरक्षण पाने वालों को वरिष्ठता का लाभ नहीं मिलेगा। पुन: 2002 में 85वां संविधान संशोधन हुआ, जिसमें कहा गया कि जल्दी प्रमोशन पाने वाले एससी-एसटी वर्ग को वरिष्ठता भी दी जाएगी। इसे परिणामी वरिष्ठता कहते हैं। इसके चलते एससी-एसटी कामिंर्कों को अनारक्षित पदों पर भी प्रमोशन किया जाएगा। एम. नागराज बनाम भारत संघ मामले में सभी संशोधनों को चुनौती दी गई। पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि बाध्यकारी कारण बताने पड़ेंगे। इसमें तीन बिंदुओं को संख्यात्मक आंकड़ों से प्रमाणित करना था-पहला, जिसकी पदोन्नति कर रहे हैं, वह अब भी पिछड़ा हुआ है। दूसरा, उसकी पदोन्नति इसलिए कर रहे हैं कि उसके वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है। तीसरा, ऐसा करने से प्रशासनिक दक्षता पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।
अब 117वें संविधान संशोधन से पांचवीं बार यह व्यवस्था की गई है कि एससी-एसटी कर्मचारी पिछड़े माने ही जाएंगे, भले उनकी आमदनी अधिक हो। जो कोटा नौकरियों में होगा, वहीं पदोन्नतियों में भी होगा और परिणामी ज्येष्ठता भी लागू रहेगी। इसके अलावा आर्टकिल 335 में लिखित दक्षता वाली लाइन भी मिटा दी गई है। अब तक चार अदालती फैसले और पांच संविधान संशोधन हो चुके हैं। दरअसल, वोट की राजनीति के कारण प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी लाभ लगातार आरक्षण का लाभ उठाकर अपने सहकर्मियों से आगे टॉप पर पहुंचने के अधिकार का आग्रह है। इसका अर्थ यह है कि यदि अनुसूचित जाति या जनजाति का कर्मचारी इसका लाभ पाकर नए कैडर में चला जाता है, तो वह आगे भी इसी प्रकार लगातार आरक्षण के आधार पर प्रोन्नति पाते हुए टॉप तक पहुंच जाएगा, जबकि उसके साथ नियुक्त सामान्य वर्ग का सहकर्मी अपने मूल पद पर ही बना रह सकता है। दरअसल, प्रोन्नति में आरक्षण शाश्वत आरक्षण और सेवापर्यंत परिणामी लाभ का मामला है, जो संविधान की मूल भावना के विपरीत है। - जेपी सिंह